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बृ॒हत्स्वश्च॑न्द्र॒मम॑व॒द्यदु॒क्थ्य१॒॑मकृ॑ण्वत भि॒यसा॒ रोह॑णं दि॒वः। यन्मानु॑षप्रधना॒ इन्द्र॑मू॒तयः॒ स्व॑र्नृ॒षाचो॑ म॒रुतोऽम॑द॒न्ननु॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bṛhat svaścandram amavad yad ukthyam akṛṇvata bhiyasā rohaṇaṁ divaḥ | yan mānuṣapradhanā indram ūtayaḥ svar nṛṣāco maruto madann anu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बृ॒हत्। स्वऽच॑न्द्रम्। अम॑ऽवत्। यत्। उ॒क्थ्य॑म्। अकृ॑ण्वत। भि॒यसा॑। रोह॑णम्। दि॒वः। यत्। मानु॑षऽप्रधनाः। इन्द्र॑म्। ऊ॒तयः॑। स्वः॑। नृ॒ऽसाचः॑। म॒रुतः॑। अम॑दन्। अनु॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:52» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (मानुषप्रधनाः) मनुष्यों को उत्तम धन प्राप्त करने तथा (नृषाचः) मनुष्यों को कर्म में संयुक्त करनेवाले (मरुतः) प्राण आदि हैं वे (इन्द्रम्) बिजुली को प्राप्त होकर (यत्) जिस (बृहत्) बड़े (स्वश्चन्द्रम्) अपने आह्लादकारक प्रकाश से युक्त (अमवत्) उत्तम ज्ञान (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय (स्वः) सुख को (अकृण्वत) सम्पादन करते हैं और (यत्) जो (भियसा) दुःख के भय से (दिवः) प्रकाशमान मोक्ष सुख का (रोहणम्) आरोहण (ऊतयः) रक्षा आदि होती हैं, उनको करके (अन्वमदन्) उसके अनुकूल आनन्द करते हैं, वे मनुष्य मुख्य सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - विद्याधन, राज्य, पराक्रम, बल वा पुरुषों की सहायता ये सब जिस धार्मिक विद्वान् मनुष्य को प्राप्त होते हैं, उसको उत्तम सुख उत्पन्न कराते हैं ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

ये मानुषप्रधना नृषाचो मरुत इन्द्रं प्राप्य यद्बृहत्स्वश्चन्द्रममवदुक्थ्यं स्वः सुखं चाकृण्वत कुर्वन्ति यद्ये भियसा दुःखभयेन दिवः प्रकाशमानस्य मोक्षसुखस्यारोहणमूतयो भूत्वाऽन्वमदन्ननुमोदन्ते ते सुखिनः स्युः ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहत्) महत् (स्वश्चन्द्रम्) स्वेन प्रकाशेनाह्लादकारकेण युक्तं सुवर्णम्। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं०१.२) अत्र हस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे। (अष्टा०६.१.१५१) अनेन सुडागमः। (अमवत्) अमः प्रशस्तो बोधः सम्भागो यस्मिँस्तत् (यत्) गुणप्रकाशकम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (अकृण्वत) कुर्वन्ति (भियसा) भयेन (रोहणम्) आरोहन्ति येन तत् (दिवः) प्रकाशमानस्य (यत्) यम् (मानुषप्रधनाः) मनुष्याणां प्रकृष्टानि धनानि याभ्यस्ताः (इन्द्रम्) विद्युतम् (ऊतयः) रक्षणाद्याः (स्वः) सुखम् (नृषाचः) ये नॄन् सचन्ति समवयन्ति ते (मरुतः) प्राणादयः (अमदन्) हर्षन्ति (अनु) आनुकूल्ये ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - विद्याधनं राज्यं पराक्रमो बलं पुरुषसहायश्च यं धार्मिकं विद्वासं प्राप्नुवन्ति, तमुत्तमं सुखं जनयन्ति ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्याधन, राज्य, पराक्रम, बल व पुरुषाचे साह्य ज्या धार्मिक विद्वान माणसांना प्राप्त होतात, त्यांना उत्तम सुख मिळते. ॥ ९ ॥